स्वामी विवेकानंद
शिष्यत्व की शर्त निश्चित रूप से अत्यंत कठोर है। सच्चे समर्पण के माध्यम से ही इसे पालन किया जा सकता है। एक बार एक युवा ने स्वामी विवेकानंद से अपना शिष्य बना लेने का आग्रह किया। स्वामी जी मौन थे। वह जानते थे इसका पालन करना कोई आसान कार्य नहीं, परंतु अधिक अनुनय-विनय करने पर अपनी आग्नेय वाणी से उन्होंने कहा, क्या तुम मुझे अपने सर्वस्व का दान कर सकते हो, जो मैं कहूँ उसे पालन कर सकोगे ? यदि मैं तुम्हें आसाम के चाय बागान में मजदुर बनाकर बेच दूँ और समुद्र में शार्क मछलियों के हवाले कर दूँ तो बिना भय के तैयार हो सकेगा ? भला इससे कम में क्या कोई गुरु अपने शरीर के रक्त बूँदों को चुकाने के बदले प्राप्त तपशक्ति से शिष्य की आत्मा को सींच सकता है।
The requirement of discipleship is certainly very strict. It can be followed only through true dedication. Once a youth requested Swami Vivekananda to become his disciple. Swamiji was silent. He knew that it was not an easy task to follow, but on more persuasion, he said with his fiery voice, can you donate your everything to me, will you be able to follow what I say? If I sell you as a laborer in the tea garden of Assam and hand you over to sharks in the sea, will you be ready without fear? In less than this, can a teacher irrigate the soul of the disciple with the power of penance received in exchange for the blood drops of his body.
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महर्षि दयानन्द को अधिष्ठात्री देवों की सत्ता स्वीकार्य न थी। उनके द्वारा तत्कालीन यज्ञ परम्परा का घोर विरोध किया गया। अपने वेदभाष्य व सत्यार्थप्रकाश में उन्होंने देवतावाची पदों का सही अर्थ प्रस्तुत किया। सत्यार्थप्रकाश सप्तम समुल्लास में देवता की परिभाषा देते हुए महर्षि कहते हैं- देवता दिव्यगुणों...