राष्ट्र की रक्षा
प्रत्येक राष्ट्र में ब्रम्ह और क्षत्र दोनों का होना आवश्यक है। कोई भी राष्ट्र ज्ञान-विज्ञान के शिक्षक, आस्तिकता और सच्चरित्रता के प्रचारक, धर्म के उद्धारक ब्राम्हणों से धृत तथा राष्ट्र की रक्षा करने वाले एवं अवसर आने पर राष्ट्र-हितार्थ अपना बलिदान तक कर देनेवाले वीर क्षत्रियों से रक्षित होता है। इन दोनों में से एक के भी अभाव में राष्ट्र का शरीर खड़ा रह सकना कठिन है। बड़े-बड़े बली ऊपर सैन्य-शक्ति में अग्रणी राष्ट्र ब्रम्ह-बल के अभाव के कारण अपने शक्ति-प्रदर्शन की धुन में दूसरे राष्ट्रों के साथ युद्ध करके नष्ट-भ्रष्ट हो गये। इसके विपरीत एक शांति प्रिय और अज्ञान-विज्ञान के उपासक-राष्ट्र आत्म-रक्षा के साधन पास न होने से दूसरे राष्ट्रों द्वारा कवलित कर लिये गये।
राष्ट्र के समान व्यक्ति में भी ब्रम्ह अर्थात ज्ञान-विज्ञान, ईश्वर-विश्वास, त्याग, अपरिग्रह आदि का गुण और क्षत्र अर्थात क्षत से बचने-बचाने का तथा आत्म-रक्षा एवं पर-रक्षा का गुण, दोनों का होना अनिवार्य है। किसी एक के भी न होने पर व्यक्ति में न्यूनता रहती है, जिसके कारण वह उन्नत ही हो सकता।
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महर्षि दयानन्द को अधिष्ठात्री देवों की सत्ता स्वीकार्य न थी। उनके द्वारा तत्कालीन यज्ञ परम्परा का घोर विरोध किया गया। अपने वेदभाष्य व सत्यार्थप्रकाश में उन्होंने देवतावाची पदों का सही अर्थ प्रस्तुत किया। सत्यार्थप्रकाश सप्तम समुल्लास में देवता की परिभाषा देते हुए महर्षि कहते हैं- देवता दिव्यगुणों...